जानत सब्दाभूषन जैसी। सूरज स्याम मुध दासी को करी कही बिधि कैसो॥१०४॥ उक्त गोपिन की ऊधो प्रतकै अबलों ऐसी नाहीं सुनी है जैसी नंद के नंदन ने गुन के करे है श्रवन नाम (श्रुत श्रुत नाम वेद) श्रुत कहे बेद बचनन ते सारंग समुद्र की पतिनी नदी है गंगा आदिक अरु अकास गुन शब्द साधना ते शुद्ध होत है सो शास्त्र कहत है रवि ते त्रै मंगल जननी भूमि संसकार ते शुद्ध होत है रति में तिया के अधर शुद्र मुनि बचन वारे (कहत हैं सब शुद्ध करने को हम लच्छन सुनो है) शुद्ध सवन को लक्षण जानत शब्दाभूषन जैसो शब्द शुद्ध करने को हम को लक्षण सुने है अरु जानती है परंतु दासी को कवन बिध ते कान्ह ने शुद्ध करी है या शब्दा अलंकार है लच्छन। चौपाई-सब्द प्रमान जहां ठहरावै । सब्द अलंकृत सुकवि बतावै ॥१०॥ भूसुत मेघ काल नहिं इनके आदि बरन चित आवै। तरु भामिन बन पाते जानो मध बरन बिसरावै ॥ अवल हुतासन केर सँदेसी तुमहूंमध निकासो। हिम के उपल तलाई अंत ते याके जुगुत प्रकासो॥ हम तो बंधी स्याम पैन सुंदर छोरनहार न कोई। जो ब्रज जो अर्थपति सूरज सब सुषदायक तजा॥१०५ र की (कै) भूसुत कुज (घन दिन)मेघ काल वरषा (के)निसि जामिनी उक्त गोपीत त
पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/९९
दिखावट