[ १०१ ] सारंग जो पछी ताको नाम दुज (अरु दुज) नाम बिप्र के पद को थान विष्णु अरु अपने द्विगन के मद्ध ताको (तिन को) राषिये · इंद्र सत्रु बलि सुभाव सपी हे सपी मेरे और चाह नाहीं शिवा मोकों यही बरदान देहि याही में सांत को अंग सिंगार है ताते रसवत इति ॥ १०७ ॥ देषत आजु नाही दोडू । नंदनंदन ओ छबीली राधिका रुचि भोडू ॥ मध बादर बीच मनि में स्थाम मूरत देष। पुंड- रीक बिचार लागी लेन गंध बिसेष ॥ इंद्रसुतसुत वीच उन लष लगे चूमन चाहि। हंसत दोऊ दुहुन को लष सूर बलि बलि जाहि ॥ १०८॥ उक्त सपी की सपी प्रत कै नाहीं को परजाइ मुकुर दोइ देषत है नंदनंदन औ राधा रुचि में भूलि गये है बादर नाम पयोधर के बीच मनि के राधा ने स्याम को प्रतबिंब देपा सो पुंडरीक जान सूंघन लगी अरु कृष्ण इंद्र सुत वाली ताको पुत्र अंगद नाम बाजूवंद तामें राधा मुष प्रति- बिंव देप चूमन लागे यह देष दोऊ दुहुन को हंसन लगे याही में सिंगार को अंग हांस ॥ १०८॥ मुनि पुनि रसन के रस लेष। दसन गौरी नंद को लिषि सुवल संपत पेष ॥ नंदनंदन मास छैते हीन त्रितिया बार। नंदनंदन जनमते हैं बान सुष आगार॥ वितिय रिछ सुकर्म जोग विचारि सूर
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