पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/१३६

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बिचारि देषि मन तो रसना पिक रही लजाई॥१६॥ राधे तेरे इति । हे राधे तेरे यह रूप की अधिकाई है जो उपमा दीजिये ताकी छबि न्यून हो जाति है। तेरी कटि देषिसिंह सकुचैहै सरोवर तेरी नाभि देषि विथा भरैहै नीर सुपे जात हैं चंद्रमा घटि जात. है औ हिये में आग जरै है तेरो मुप देषि चंपक को फूलत न देषि कुँभिलाय गयो है इभ जो है हाथी सो तेरी गति देषि लज्जित होत है। अरु पंक मैं जो भये है कमल ते तेरे कर देषि लजित भये। कद्रुज जो सर्प सो तेरी बेनी देषि सिकुरि गये हैं ॥ अरु पगपति जो है गरुड सो अपने वर्ग की पराजय देषि सुक कपोत कीर नासिका कंठ ते संकोच मानि हरिबाहन भयो है * अरु हंस सर मैं दुरे हैं । अरु कमल नील अरु मृग नेत्र देषि पराय गये हैं ॥ सो तू विचारि रसना के रस ते पिक लजाइ गए हैं ॥ १९॥ राग सारंग। राधे यह छबि उलटि भई । सारंग ऊपर सुंदर कदली तापर सिंह ठई ॥ ता ऊपर है हाटक बरनौ मोहन कुंभ मई । तापर कमल कमल बिच बिद्रुम तापर कीर लई ॥ ता ऊपर है मीन चपल हैं सउरति साध रही ।

  • यद्यपि बनारस और लखनौ की. छपी हुई पुस्तकों में ऐसे ही है पर यहां

ऐसा रहता तो अच्छा होता--अरु पगाति जो है गरुड सो अपने वर्ग:की पराजय देखि हरिलाहन भयो है सुक कपोत कीर नासिका कंठ ते संकोच मानि अरु हंस सर में दुरे हैं।