पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/१३७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सूरदास प्रभु देषि अचंभो कहत न परत कही ॥ २० ॥ हे राधे यह छवि इति । सपी की उक्ति नायका सों। हे राधे यह छवि उलटि भई है। सारंग कमल तापर कदली कमल चरन कदली जंघा तापर कटि सिंह तापर द्वै हाटक के कुंभ कुच तापर कमल मुष ताके बीच में विद्रुम अधर ताके उर ? मीन नैन ताके सुमिरन मै लालसा नाहीं पूरन होत ऐसो अचंभो देषि कहीं नहीं जाइ है ॥ २० ॥ राग बिलावल । जलसुत प्रीतम सुत रिपु बंधव आयुध आपुन बिलष भयोरी । मेरुसुतापति बसतु जु माथे कोटि प्रकास रिसाङ्क गयोरी ॥ मारुतसुतपतिअरिपुरबासी पितु बाहन भोजन न सोहाई। हरि- सुतबाहनअसनसनेही मानहु अनल देह दौलाई ॥ उदधिसुतापति ताकर बाहन तिहि कैसे समुझावै। सूरस्याम मिलि धर्मसुवनरिपु ता अवतारहि सलिल बहावै ॥ २१ ॥ सपी की उक्ति । जलसुत कमल ताको पीतम सूर्य ताको सुत करन ताको रिघु अर्जुन ताको बंधु भीम ताको अस्त्र गदा कहैं रोग बिलषि करि भयो है। अरु मेरु मुतापति महादेव तिन के माथे में बसन हैं ।