पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/१४४

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सिव पूजति तपति बिनास । सूरदास प्रभु हरि बिरहा रिपु दाहत अंग दिखा- वत बास॥२८॥ सोचत इति । सपी की उक्ति नायक प्रति । कै राधा आज सोचत नप ते भूमि पनत है कंउ गदगद होइ गयो है बात नहीं कहत अचल हो रही है। छिति पर कमल पद तापर कदली जंघा कंज उरोज तापर अलि स्यामता तापर सारंग कपोत कंठ तापर सारंग कमल मुष तापर सारंग रात्री ताको रिपु दुपहरिया को फूल ताके ऊपर पंथ अरि जमुना अलक तापै जमुना के पिता सूर्य सो ताटंक तापर वारिज विव संष कपोल अरु सारंग पंजरीट नेत्र तिन ते जल गिर है सो मानों ताप दूर करिव को सिब ऊपर डारे हैं सूरदास प्रभु हरि हे विरह के. रिपु वास जो निवास सो अंग को दाहै है ॥ २८ ॥ राग मल्लार। सषी री हरि बिन हरि दुष मारी। सिंह को मुत हरभूषन ग्रसि ज्यों सोडू गति भई हमारो सिपर बंधु अरि क्यों न निपारत पुहुप धनुष लेक बिसेष । चक्षुश्रवा उरहार ग्रसी ज्यौं किन दुति या बयु रेष ॥ घटसुतअसन समै सुत आनन अमीगलित जैसे मेत । जलधर व्योम अंबुकन मंचत नैन होड बदि लेत ॥ जदुपति प्रभु मिलि आनि मिला-