पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/१५

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। उक्ति सषी की सपी प्रति के कुंजभवन ते राधा आज अकेली जीवत है अरु अंग अंग में बहुत रंग की सोभा दरसावत है दिनपति सूर्य सुत करन अरि अर्जुन पिता इन्द्र सुत बालि ताके सुत अंगद जे बाजूबंद है सो करन ते सम्हारे है सो कैसै लगत कै मानो कमल जो है सो तीसरो रिछ नछत्र कृतका कंचन भाम पर बैठ रही है सीता को सत्रु जयंत पिता इन्द्र सेना पयोधर कुच पाट नष ताके छिद्र ऐसे पाए है सिंधु दधि ताको सत्र बिलार ताको भष मूस ताके पति गणेश पिता संथु मानो रण ते घाएल आए हैं बिथुर गयो है सारंग सुत काजर ताकी उपमा भासे है के गिरजापतिभूषन ससि तामे मानो मुन अगस्त तिन को भष समुद्र ताकी पंक कीच लगी है संभावन भूषन उतप्रेछा कर लछितानाइका सुघर सषी मुसक्याई सो सुन राधा मुर के घर को लजाइ के चली यामे कुचन विषे शभु की संभावना नपछद विषै घाव की ताते उतपेछा अरु सषी जान गई रति ताते लछितानाइका ताको लच्छन । दोहा—उतप्रेछा संभावना, करत आन की होइ । T सपी प्रीति जानत कहै, चतुर लछता सोइ ॥१॥ -टिप्पणी-बाबू परमेश्वर सिंह निम्नलिखित अर्थ इस पद में करते हैं । दिनपति सूर्य्य सुत सुग्रीव अरि बालि पिता इन्द्र, पुत्र बालि, बालि पुत्र अंगद । परंत इस अर्थ से ऊपर का अर्थ अच्छा है। अंत में फल अंगद ही दोनों ने निकाला है शेष अर्थ पूर्ववत् । गृह तें चलो गोपकुमारि । परक ठाढी देष अदभुत एक अनुपम मार ॥ कमल ऊपर सरल कदली कदलि पर मृगराज । सिंघ ऊपर सर्प दोई सर्प पर ससि साज ॥ मध ससि के मीन षेलत पकांत सुजुक्त । सूर लषि भई मुदित सुंदर करत आछी उक्ति ॥ १४ ॥