उक्ति कवि की कै अपने घर तें गोपकुमारि राधा ने एक अदभुत देवे की कमल नंदनंदन के चरग कदली जांघ मृगराज कटि सर्प भुज ससि मुष मीन नेत्र देष रूपजुत कर मुदित अनंदित भई या पद में उप- मान ते उपमेय बोध किये अरु चितचाही बात देष के मुदित भई ताते मुदिता नाइका ताको लच्छन । दोहा-रूप कांत उपमान ते, होइ बोध उपमेय । चितचाही लपि बात ते, मुदिता ही को भेय ॥ १ ॥१४॥ गिरजापति पितु पितु पितु ही ते सौ गुन सी दरसावै। ससिसुतबेद पिता की पुत्री आजु कहा चित चावै। सूरजसुत माता सुबोध की आपुन आदि ढहावै । सूरज प्रभु मिलाप हित स्थानी अनमिल उति गनावै॥१५॥ उक्ति नाइका की कै गिरजापति शिव पितु ब्रह्मा पितु कमल पितु समुद्र तै सौ गुनी देष परत है ससिसुत बुध ताते चौथो सनि पिता सूर्य पुत्री जमुना जु कहा चित में चाहत है सूर्य सुत करन माता कुंती बौध जैन आदि वरण ते कुंजै का नास कर है सूर के प्रभु के मिलाप के हित (हेतु समुद्र तें सौ गुनी जमुना में) अतिउक्ति अरु कुंज गिरवे कारन दुष होइबो काज सो कारण के प्रथम भयो ताते अक्रमातसयउक्त अरु जमुना बढत मात्र दुष भयो ताते चपलातसउक्ति अरु सहेट कुंज में रहो ताको नास देषत दुष पायो ताते अनुसैना नाइका लच्छन । दोहा-कारज कारन भाव ते, अक्रमात सब उक्त । विनसत देष सहेट को, अनुसेना की जुक्त ॥ १ ॥१५॥ निसा अंतपतिसुत सुभाव सुन आजु कहां तें आई। पुत्रपुत्र के पास गई किन
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