सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/१५५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

चलन सरितन की सम्हारे षचर घेलन बान ॥ विकट भृकुटी मुकट लटकन सुकटि सोभा सोय । सूर बलि बलि जात तन मन तपन तीषन धोय ॥४३॥ ' सुंदर इति । बार जल नाम का ससि मयंक आदि ते काम लाजत । मीनरिपु वंसी सुन गुन शब्द सरित नयनचर पंजन की बान ॥४३॥ . देषि सषी पांच कमल हौसंभु । एक कमल बृज ऊपर राजत निरषत नैन अचंभु ॥ एक कमल प्यारी कर लीन्हे कमल सकोमिल अंग । जुगल कमल सुत कमल बिचारत प्रीत न कबहुंभंग॥ षट जु कमल मुष सनमुष चितवत बहु बिधि रंग तरंग । तिन मे तीन सोम बंसी बस तीन तीन सुक सीयज अंग ॥ जेई कमल सनकादिक दुर्लभ जिन ते निकसी गंग। तेई कमल सूर नित चित- वत नीठ निरंतर संग ॥४४॥ उक्ति सषी की सपी प्रति । के हे सषी पाँच कमल दो संभु के निकट है राधा के उर में स्याम मुष धरो मुष १ नेत्र दो कर दो। तिन में एक कमल जो मुष है सो वृज समूह के ऊपर है। ताहि देष अचंभो