पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/१७९

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1 १७८ । निज पुर गयो लेत. हरषाना । पावा तहां विविध सनमाना ॥ एक दिवस रत नृत्य अगारा । देखिस रुचिर धरन पतिदारा ॥८॥ सजि संगार आभरन सोहन । ठाडी मनहु मान रति मोहन ॥ चारि ओर परिवारत दासी । सेवइ सुखद रूप गुन रासी ॥ ९ ॥ अस प्रभाव दृग देखि सुहावा । तहि कर हृदय मनोरथ छावा ॥ हमहुँ होब इहि सम कस रानी । अस विचारि मानस सकुचानी ॥१०॥ इन कर भूप पुण्य संसारा । हमहुँ अधम बिग जनम हमारा ॥ पुनि देखिस छित पत पटरानी । देत दान दीनन रति मानी ॥११॥ दोहा--धन भूषन पट भक्तिजुत, करत सकल सिवकाई। अतथि संत आवतसदन, भोजन देहुँ जिवाई ॥१॥ हमहुंकरब यदि पुण्यअस, कहत गुनत जिय माहिं । तो पावडं संसय नहीं, भूप पतनि पद काहिं ॥२॥ चौपाई। अस प्रकार पावन सुभ तासा । ललित दान रुचि हृदय प्रकासा । तब तहिं दैव योग कर आई । ज्वररुज उपज प्रबल दुखदाई ॥१॥ पुनि पंचत्यभाव कहं सोई । प्रापत भई व्याधि सब खोई ॥ धरम दत रौरव तहि डायो। तहां मोग निज कृत अगसायो॥२॥ सुर पुर गवनि बहुरि हरखाती । अपसर नृत्य गीत कलराती । मथुरा भवन भवन भगवाना । जो नृत गीत ललित पुन गाना ॥३॥ कीनसि भक्ति प्रेम सरसाए । तहि परिनास अमर पुरपाए ॥ अरु उपकार देखि नृप रानी । जोतहि हृदय दान रुचिमानी ॥४॥ ताहि प्रसाद भवन तुव आई । भोगे बिबिध भोग सुखपाई ॥ आज बिदित देखत तुच एहा । मृत बस भई तुरत तजि देहा ॥५॥ पै जादव बसी बीय जेहू । रही सो दैव रूप सब तेह । कौतुक करन दैव पुर त्यागी । आई धरनि कृष्ण अनुरागी ॥ ६॥ गवनी बहुरि अमर पुर काहीं । रही सो मनुज रूप कछु नाहीं। अस कहि सरदास हरषाते । मांगि बिदाय भक्ति मदमाते ॥७॥ तब दलीस सादिर धन दीना । भक्त सृष्ट सइ कारन कीना ॥ हमरे नहिन द्रव्य कछु कामा । तब दलीस बरनन अभिरामा ॥ ८॥ धयो सीस नमृत कर जोरी । बिनय बदन कछु कीनन थोरी ॥ चले सूर तब होत निदाए । हरषत कृष्ण-ललित पुरआए ॥ ९॥