स्थामघन ताते मन अकुतात॥कहुसहुता कबि मिले सूब प्रभु प्रान रहत न तो परदेसी की बात इति । है सपी परदेती की बात सुन धाम को अरब पाप पछ बीच देकै धनस्याय हो । हरि वाम महार मा महीना जात ग्रह ९ नक्षत्र २७ बेद ४ सब मिल माली आये ते वीस त्रि मोको को वर। रवि पंचाहारका नाममोन को संग रुमाल लगाये तासे मनु उकतात। मसह सुकर कहो नातार प्राण जात है इहाँ नाइका पूर्वक्षत स्पादन के भयो है हमारा जीव । लाते सहोकृत अलंकार है साकोलच्छन। चौपाई-दोन एको संग बानो ! सही माहित अलंकृत जानो। टिप्पणी-सरदार कवि ने जो कुछ लिखा है उस को सूरशतकपूर्वाद्ध टीका के सातवें पद के नोट में लिखा है उसे देखलेने से मालूम हो जायेगा। बाबू चंडीप्रसाद सिंह ( रूपस बडुवा निवासी) इस पद को कुछ अद्ल बदल कर कहते हैं और अर्थ भी कई एक स्थान पर विलक्षण करते हैं वह नीचे लिखा है। कहे न कोइ परदेसी कै बात । जब ते बिछुरे नंद सांबरो ना कोई आवे न जात ॥ मंदिर अर्द्ध अवधि प्रभु वदि गये, हरिअहार चलि जात । अज्याभख अनुसारत नाही, कइसे के समय सिरात !! ससि रिपु बरष भानु रिपु जुग सम, हर रिपु कीन्हो घात । नखत जोरि ग्रह बेद अरध करि सोई बने अब खाता मव पंचम ले गयो साँवरो, ताते जीव अकुलात । सूरस्याम आवन के आसा प्रान रहे नत जात ॥ १॥ अर्थ-प्रोषितानायिका कहती है कि कोई परदेशी की बात नहीं कहता है । जब से नन्दसॉवरे कृष्ण बिछुरे हैं तब से नहीं कोई आता है न जाता है। मन्दिर घर अर्द्ध पारख कहिये पक्ष पन्द्रह दिन की अवधि वदि गये परंतु हरि सिंह वा बाघ उस का अहार मांस अब मांस का अर्थ महीना चलाजाता है अज्या बकरी उस का भख पात अर्थात् पाती वह नहीं आती है तो समय कैसे बीते । शशि रिपु सूर्य अर्थात् दिन वर्ष के बराबर और भानु रिपु शशि अर्थात् रात्रि
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