पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/४९

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[१८] भले अनान्य परस्पर सातुक देष दोहुन को लाज नाही करि सकत या पद विषै सातुक भाव कंटकादि सुर भंग ते अरु परसपर ते अनोन्य अलं- कार लच्छन। दोहा-लप विभाव जो अंग में, होत सु सातुक जान । उपकारी जहं परसपर, तहां अनोन्या मान ॥१॥४॥ सजनी जो तन बृथा गँवायो । नंद- नंदन वृजराजकुंअर सों नाहक नेह लगायो । दधिसुत धररिपु सहे सिली- मुष सुष सब अंग नसायो । सिवसुत बाहनरिपुभषमुत सुत सब तन ताप तचायो॥घर आंगन दिस बिदिस सूरजा तट वह मूरत देषी । सूरज प्रभु ते कियो चाहियत हैं निबेद बिसेषी ॥४६॥ उक्ति नायका की सपी प्रति कै हे सपी यह जो तन है सो वृथा गँवायो नंदनंदन वृजराजकुंअर सों कियो नेह दधिसुत धर शिवरिपु काम को बान सहै सब सुष षोइ के शिवसुत. गणेश बाहन सूस रिपु बिलाइ भष दूध सुत दधि समुद्र सुत चंद्र के ताप ते तची घर आंगन दिस बिदिसन सूरजा जमुनातट वही मूरत देषी अब सूर के प्रभु ते निरबेद बिसेष करो चाहियत है यामे निर्वेद संचारी को है संकर सब ते मन हटो तातें निरवेद एक वस्तु अनेक ठौर बरनी तातें विसेप अलंकार लच्छन । दोहा-घेद सुपन ते कहत है, संचारी निरबेद । __एक अनेकन थान ते, है बिसेप को भेद ॥ १॥४६॥ धिग धिग मोहि तोहि सुन सजनी धिग जेहि हेत बोलाई । धिग सारंग