पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/५०

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[१९] सारंग में सजनी सारंग अंग समाई ॥ सारंग माल लगत सारंग सी सारंगिनि ज्यों फूली। सारंगिनि दै दोस सूर बैघा- तिन समुझो न भूली ॥४७॥ (घिग धिग इति) उक्ति नायका की सषी सों कै मोको धिग तोकों धिग जाके हित बोलाई ताको धिग सारंग चंद सारंग रात में स्याम जो कारोजाके अंग में समाई सारंग दीपमाला सारंग आगि सी लगावत अथवा सारंग भ्रमर माल सारंगिनी कमलनी जो फूली है सारंगिनी जो अली है ताको दोष दे के बयक्रम की घातिन समुझि कै भूली यामें गलान संचारी सुषदायक दुष दायक ते ब्याघात अलंकार ॥ ४७॥ जा रवि दो धर रिपु प्रथम बिकासो। ताने निज पतिनी मेरे मन करि सारंग प्रकासो ॥ पतनी लै सारंग घर सजनी सारंग धर मन पैचो । ग्रह नछत्र अरु बेद सबन मिलि तनप्रन करि के बेचो॥ सो तन हान होन चाहत है बिना प्रान पति पाये। कर संका कारन की माला तेहि पहिराउ सुभाये। ४८॥ __ उक्ति नायका की सषी प्रति कै हे सपी रवि तें दूसरो ग्रह चंद धर शिवरिपु काम प्रथम हमारो तन में आयो ताने निज पतिनी रति प्रीति कर के हृदय कमल में प्रफूलित कियो रति जो है ताने सारंगधर कृष्ण सारंग हाथ पकर के मन बैंचो(अथवा उर कमल में पैंचो ) ग्रह नक्षत्र वेद चार मिलि