पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/८१

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- [८० गुर होहु और जी सी तिन की समुझ सहेलो ॥ का सतरात अली बतरावत उतने नाच नचावे। सरदास तज व्याज उक्त सब मोसो कौन चेतावै ॥८४॥ उक्ति नाइका की सपी प्रति के हे सषी यह जो सामरी सपी सो मेरे हेत चक्रवाक कोक पढि आई है जस कहें कीरत मैया ने याको पवि- अता अरु सील जान के मेरे हेत पठवाई है जानत है बुधिवंत वेद चार बसु आठ बरन बिपरीत गत ते चौरासी आसन जैसी यह जानत है तैसी कह न सुने (सुनी) है अरु जाके संग रहे ते हैं सजमी बहुत सुषपैहै परंत जब मोकों याने चेलीकरी तब यह कहिलई और कों हों चेलीन करिहैं और जो तुम्हारे संग की सहेली हैं तिन को तुम गुर होइ कै सिषायौ सो तू सत- रावत बतरावत कहा है इत उतनैन का नचावत है ब्याज उक्त तज मोसो कहनी होइ सो कहु या पद में सतरावत बतरावत नैन नचावत तें भाव सबलता ब्याजोक्त अलंकार लच्छन । चौपाई-औरहि निज आकार दुरावै। ब्याज उक्ति तहां सुकवि बतावै॥८॥ हरिग्रह जा पति पतिनी सहेली। हयभूषन कीनी ना तातें जैहै काल अकेली॥ तिरसकार भासा में जाते लागत है भै भारी। कासों कही सुने को सजनी परी बिपत्त महारी ॥ पग रिपु ता मह परत गजल के को तन तें सूरझावै। उक्तगूढ तें भाव उदे सब सूरज स्याम सुनावै ॥ ८५ ॥