पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/८३

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८२ । पतनी रति अंत के वरण ते पोजत ( अंत के वर्णन पायो अर्थ हो सो) भयो अर्थ बछरा पोजत हैं पतिमाता सासु मीन झष आदि बरन ते सांझ खै गयो (भई तुम) चित्त में समुझो क्यरोचनसुत (पुत्र) वलि सुभाव सषी संग में नाहीं है (देष परत) इंद्रसहाय मेघ चारो दिसा में उठे हैं सहेली कहे दामिन संग में लिये हैं यह विपत्त (विपदा) में रापनहारो हमारो नाथ और कोई नाहीं तातें बिनय करत है हमारे संग चलो यह उक्त सुन स्याम को जो बिरह रहो सो बुझाइ गयो ताते भाव ताते विप्र उक्त अलंकार है लक्षण । दोहा-असलेष छपो परगट करै, बिम उक्त है छेम । भाव सांत ते होत है, भाव सांत कर नेम ॥१॥८६॥ करि बिपरीत भवन में धारा । बैठी हती अकेली सुंदर लिषत रूप सुत सुत सुत मारा ॥ दधिसुत अरि भष सुत सुभाव चल तहां उताइल आई। देष ताहि सुरलिप कुबेर को वित्त तुरंत समु- झाई॥ करत बिंगते बिंग दूसरी जुक्त अलंकृत मांही। सूर देष खालिन को बातें को कस समुझ तहांही ॥८॥ __उक्त कविकीधारा विपरीत (करें) तेंराधोअकेली मंदिर में बैठि सुत (कहीं नंद तिन के सुत कृष्ण) सुत नंदनंदन तिन की तसवीर लिषत रही (तब लों) दधिसुत चंद रिपु राहु भष सूर्य सुत करण सुभाव सषी तहां गई ताके देख सुर कही सुमन कुबेर वित्त धनु अर्थ फूल धनुष तामें लिष दयो है काम की तसबीर लिपत रहा यामें विंग सपी की तू नंदनंदन की आसक्त भई दूसरी राधा जहँ दिपाई कै है काम की तसवीर लिघत रही अरु तोपै काम धनु लीनो तब आन को लगवत युक्ति अलंकार । चौपाई-करम करत जहँ क्रिया छपाई । जुक्त अलंकृत तहँ ठहराई ॥१॥८७॥