[6] र लषि बृजचंद चंद मुष राधे। दधि- सुतपति पतनी न निकासत दिनपति सुत पतिनी प्रिय बाधे ॥ इंदीबरसुत कर कपोल में है सिंगार रस राधे । दधिमुत बेद खैच अपनो कर सरुच सुभाव सु नाधे ॥ ग्रहमुनि दुत हित के हित कर ते मुकर उतारत नाधे। सूरज प्रसु लष धौर रूप. कर चरन कमल पर धाधे ॥६॥ लपि जचंद इति या पद विष धीरा नाइका रूपक अलंकार है ताको लच्छन। दोहा-बिंग कोप जामें लखो, जानो धीरां सोइ । उपमेयो उपमान मिलि, मानो रूपक सोइ ॥ १॥
- लखि के दृजचंद को मुष चंद का कलंकित दधिसुतसुत ब्रह्मा ताकी
पतनी गिरा सो न निकासी दिनपति भानु सुत सनि पतनी करकसा ताके प्रिय क्रूरबचन ते बाघे नाम बाध राखे दधिसुत चंद ताते बेद चौथो वृहस्पति ताको नाम जीव सो जीव बैच के अपनो कीनो गिरंजापतिसुत बाहन मयूर भष सर्प ता भष पवन सो सुगंधावारो करन लगी अहमुन सप्तएं ग्रह मंद दुत देषराइबे के हेत आरसी कर ते उतारी तब नंदनंदन धीस नाइका जान के अरु रूपक अलंकार सो चरन कमल पर धाधे नाम चितवन लगे ॥ ७॥ टिप्पणी इस पद के अर्थ को भी सरदार कवि ने ज्यों का त्यों रक्खा है। बल्कि दूसरे सूरसागर का अर्थ भी भ्रन से जोड़ दिया है। आज सषिन संग मुरुच साँवरी करत रही जल केलि । आडू गयो तहां सरस साँवरो प्रेम पसारन वेलि ॥ अघहर एक