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हिन्दी भाषा और उसका साहित्य


मृत्यु के समय मीरतकी देहली ही में थे। १७८२ ईस्वी में वे लखनऊ गये ; वहां उनको भी एक अच्छी जागीर मिली। मीरतकी की मृत्यु १८१० ईस्वी में हुई। मीरतकी ने अनेक पुस्तकें लिखी हैं। उनमें से ६ दीवान हैं। गज़ल और मसनवी में मीरतक़ी सौदा से भी बढ़ गये हैं ; परन्तु कसीदा और मज़म्मत में सोदा ही का नम्बर पहला है।

सौदा और मीरतकी के समान मीर हसन (१७८६), मीर महम्मद सोज़ (१८०० ) और क़लन्दर-बख्श जुरात (१८१०) भी देहली से लखनऊ चले आये थे। ये भी अच्छे कवियों में गिने जाते हैं। मोर-हसन-कृत सिहरुल बयान और गुलज़ारे-इरम नामक दो पुस्तकें बहुत प्रसिद्ध हैं। जुरात ने दोहे और कवित्त भी लिखे हैं। मिस्कीन नामक कवि के मरसियों की बड़ी प्रशंसा है। नासिख़ की मृत्यु १८४१ और आतिश की १८४७ में हुई। इन दोनों कवियों ने गज़ल लिखने में अच्छा नाम पाया। फ़िसाने अजायब के कर्ता रजबअली बेग और अनीस लखनऊ की नवाबी के समय के अन्तिम कवि हुए हैं। वाजिदअलोशाह स्वयं कविता करते थे; कविता में वे अपना नाम अख्तर देते थे।

देहली के अन्तिम बादशाहों ने भी कविता की है। शाहआलम (१७६१-८०६) ने मनजूमे-अक़दस नाम का एक उपन्यास लिखा है। एक दीवान भी उन्होंने बनाया है। शाहआलम के लड़के सुलेमा शिकोह ने भी एक दीवान की रचना की है। बहादुरशाह (१८६२ ) ने भी कविता की है;