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हिंदी भाषा और उसका साहित्य

अपनी कविता में करते हैं उसी प्रकार उर्दू के कवि फ़ारसी के छन्दों का प्रयोग करते हैं; उर्दू की कविता में नूतनता बहुत ही कम है। वही वही बातें बार बार कही जाती हैं। प्रत्येक कवि वहुधा एक ही विषय का पिष्टपेषण करता है और पुरानी उक्तियों को नये ढंग पर कहने का यत्न करके प्रायः विफलमनोरथ होता है। बड़ी बड़ी मसनवियों में भी कथाप्रसङ्ग का विचार कम, परन्तु कहने की प्रणाली और अलङ्कारों की योजना का विचार अधिक रहता है। संस्कृत के समान फारसी भाषा का साहित्य विस्तृत नहीं। अतएव फ़ारसी कवियों की प्रणाली और उनकी विचार-परम्परा, जिसका अनुसरण उर्दू कवि करते हैं, कहां तक नूतनता रख सकती है ?

गत मनुष्यगणना से यह सिद्ध है कि देवनागरी अक्षरों के जाननेवाले इन प्रान्तों में फ़ारसी अक्षरों के जाननेवालों से कई गुने अधिक हैं। उर्दू चाहे जितनी सरल हो, उसमें कुछ न कुछ फ़ारसी-शब्दों का मेल होता ही है। इन प्रान्तों के ग्रामीण और साधारण मनुष्य संस्कृत के कम कठिन शब्द चाहे समझ भी लें, परन्तु फ़ारसी के वे नहीं समझ सकते। क्योंकि फ़ारसी विदेशी भाषा है। संस्कृत, फिर भी, इसी देश की भाषा है। फ़िर उर्दू लिखने में जिन अक्षरों का प्रयोग किया जाता है वे अपूर्ण और भ्रम उत्पन्न करने वाले हैं। उनकी लिखावट ठीक ठीक पढ़ी नहीं जाती। इन कारणों से उर्दू की अपेक्षा शुद्ध हिन्दी ही का प्रचार होना प्रजा के लिए लाभकारी है।