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हिंदी भाषा और उसका साहित्य

भाषा लिखने का दोष नहीं लगाया जा सकता। तथापि, जहां तक हो सके, विषय पर ध्यान रख कर, यथासम्भव, सरल ही भाषा लिखना उचित है।

इन प्रान्तों में शुद्ध हिन्दी जाननेवाले अधिक हैं। जब से गवर्नमेंट ने नागरी अक्षरों का प्रचार कचहरियों में किया तब से सर्वसाधारण का ध्यान इस ओर अधिक खिंँचा है। आशा है बहुत ही शीघ्र इसका अच्छा फल देखने में आवे। परन्तु इस भाषा में अच्छे अच्छे ग्रन्थों का अभाव है। बँगला, मराठी, गुजराती और तैलंगी आदि भाषाओं में, हम देखते हैं, एम० ए० और बी० ए० पास लोग लिखते हैं और ऐसा करना अपना गौरव समझते हैं; परन्तु इन प्रान्तों के विद्वान् कान में तेल डाले हुए बैठे हैं। यनसाइक्लो-पीडिया ब्रिटानिका नामक अँगरेज़ी की पुस्तक को खोलने से देख पड़ता है कि जो लोग यहां लफ़टिनेंट गवर्नर, गवर्नर और गवर्नर-जनरल तक रह चुके हैं उन्होंने भी उस पुस्तक में लेख दिये हैं। अपनी भाषा में लेख अथवा पुस्तकें लिखने से किसीकी प्रतिष्ठा कम नहीं हो जाती ; उलटा बढ़ती है। परन्तु हमारे प्रान्तवासी, अपनी लेखनी को घूंघुट की ओट में छिपाये हुए हैं ; उसे बाहर निकलने ही नहीं देते। यह लज्जा का विषय है; अथवा अपनी भाषा के दुर्भाग्य का विषय है। जिन विद्वानों को लिखने का सामर्थ्य भी है वे भी लेखनी नहीं उठाते। पण्डित मदनमोहन मालवीय ने कुछ काल तक हिन्दी की सम्पादकता भी की है और हिन्दी-सम्बन्धी पुस्तकें भी अंगरेज़ी में लिखी