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साहित्यालाप


मोटी पुस्तकें हिन्दी में हुई भी तो वे न होने के बराबर हैं। जिस झान ही की बदौलत अन्य प्राणियों में मनुष्य को श्रेष्ठता मिली है उसी ज्ञानात्मक साहित्य का हिन्दी बोलनेवाले मनुष्य नामक प्राणियों की भाषा में प्राय: पूर्णाभाव होना बड़ी ही लज्जा की बात है। गीता, सिद्धान्तशिरोमणि, साख्य, योग और मीमांसा आदि सूत्रों के टूटे फटे हिन्दी अनुवाद से इस अभाव का तिरोभाव नहीं हो सकता । इसका तिरोभाव तभी होगा जब संस्कृत और अंँगरेजी, दोनों भाषाओं, के ज्ञानाणव का मन्थन करके सब प्रकार के ज्ञानांश-सम्बन्धी ग्रन्थों की रचना होगी।

८---कोष और व्याकरण

बहुत दिनों से यह निर्घोष सुनाई दे रहा है कि हिन्दी में न तो एक अच्छा सा कोष है और न एक व्याकरण । अतएव इन दोनोंकी बड़ी आवश्यकता है। इनकी आवश्यकता है अवश्य, परन्तु बड़ी आवश्यकता नहीं । इनसे साहित्य के एक अंग की पूर्ति अवश्य हो सकती है; पर यह बात मेरी समझ में नहीं आती कि अन्यान्य परमावश्यकीय अंगों की पूर्ति की अपेक्षा इस अंग की पूर्ति के विषय में क्यों इतना जोर दिया जाता है। क्या बिना इसके हिन्दी साहित्य की थोड़ी भी पुष्टि असम्भव है ? तुलसीदास, सूरदास, बिहारीलाल, पंण्डित वंशीधर बाजपेयी, बाबू हरिश्चन्द्र, राजा शिवप्रसाद, पण्डित प्रतापनारायण आदि ने किस कोष और किस व्याकरण को सामने रख कर ग्रन्थ-रचना की है ?