कवि ने क्यों और कहां तक परिवर्तन किया है; शकुन्तला
में कवि ने दुर्वासा के शाप की क्यों अवतारणा की है; मेघदूत
में कवि ने यक्ष ही को क्यों नायक बनाया है; धारिणी और औशीनरी, प्रियंवदा और अनसूया के स्वभाव में क्या अन्तर है--ये ऐसी बातें हैं जो सबकी समझ में नहीं आ सकतीं। समालोचक ऐसी ही ऐसी बातों की मीमांसा करता है और कवि के हृदय को मानो खोल कर सर्वसाधारण के सामने रख देता है। उसके गुणों को भी वह दिखाता है और दोषों को भी । बँगला में शकुन्तला-रहस्य और शकुन्तला तत्त्व आदि समालोचना-पुस्तकें ऐसी ही है।
दुःख है, ऐसी एक भी समालोचनात्मक पुस्तक हिन्दी में मेरे देखने में नहीं आई । हां, दो एक सत्समालोचनात्मक निबन्ध अवश्य मैंने देखे हैं । सच तो यह है कि ग्रन्थकार की जीवितावस्था में उसके ग्रन्थों की यथार्थ समालोचना नहीं हो सकती; अथवा यह कहना चाहिए कि होनी ही न चाहिए। इसीसे पश्चिमी देशों के विद्वान, बहुधा ऐसे ही ग्रन्थों की विस्तृत आलोचनायें करते हैं जिनके कर्ता इस लोक में विद्यमान नहीं । परन्तु हमारी हतभागिनी हिन्दी के विलक्षण साहित्य-संसार में ऐसा करने की आज्ञा ही नहीं। जो बात अन्य उन्नत भाषाओं के साहित्यसेवी भूषण समझते हैं वही यहां दूषण मानी जाती है। यदि किसी प्राचीन कवि या ग्रन्थकार के ग्रन्थ की समालोचना में कोई उसके दोष दिखलाता है तो उसके लिए हिन्दी में यह कहा जाता है