पृष्ठ:साहित्यालाप.djvu/१४४

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सकता। परन्तु इसके लिए हमें दोष नहीं दिया जा सकता। मुझे आशा है कि हमारी दोषपूर्ण रचनाओं को देख कर,स्तन्यपान के समय अपनी प्यारी मां से सीखी हुई भाषा की दुर्दशा को देख कर, हिन्दी-भाषा-भाषी अङ्गरेजी और संस्कृत के विद्वानों को हम पर--और हम पर नहीं तो अपनी मातृभाषा पर–--अवश्य दया आवेगी और वे अवश्य ही उसके उद्धार का कार्य प्रारम्भ कर देंगे। बस, मुझे अब इतनी ही प्रार्थना करना है कि---

"अयुक्तमस्मिन्यदि किञ्चिदुक्तमज्ञानतो वा मतिविभ्रमाद्वा ।

औदार्यकारुण्यविशुदधीभिर्मनीषिभिस्तत्परिमर्जनीयम् ॥"

[अक्टोबर १९११