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साहित्यालाप


जिसके लोगों की जुबान अमूमन सनद के क़ाबिल हो । क्योंकि शहर में ऐसे चीदा और बरगुज़ीदा अशख़ास जिनसे कि वह शहर क़ाबिल सनद हो सिर्फ़ गिनती के लोग होते हैं और वह ज़माने की सदहा साला मेहनतों का नतीजा होते हैं। इनमें से बहुत मर गये । कोई बुड्ढा जैसे ख़िजाँ का मारा पत्ता किसी दरख़्त पर बाकी है । उस बुड्ढे की आवाज़ कमेटियों के गुल और अखबारों के नक्कारखानों में सुनाई भी नहीं देती । पल अब अगर दिल्ली की ज़ुबान को सनदी समझे तो वहाँ के हर शख्स की जुबान क्योंकर सनदी हो सकती है। हवा का रुख और दरिया का बहाव न किसोके अख़तियार में है न किसीको मालूम है कि किधर फिरेगा । इस लिए नहीं कह सकते अब ज़ुबान क्या रङ्ग बदलेगी। हम ज़हाज़ बे ना ख़ुदा हैं, तवक्कुल ब़खुदा कर बैठे हैं । ज़माना के इन-किलायों को रङ्ग चमन की तबदीली समझ कर देखते हैं और कहते हैं "आज़ाद"---

"किस्मत में जो लिखा था सो देखा है अब तलक ।

"और आगे देखिए अभी क्या क्या है देखते ।"

अतएव देहली और लखनऊ के बोल-चाल की नकल करना हिन्दी के लिए कदापि लाभदायक नहीं । जिसका सर्वश्रेष्ठ ज्ञाता और सर्वमान्य ग्रन्यकार उसे ऐसी बुरी सनद दे उस भाषा की नकल करना हिन्दी के शुभचिन्तकों का कर्तव्य है या नहीं, इसका विवार हम पाठकों ही पर छोड़ते हैं। बँगला, मराठी, गुजराती, संस्कृत और अँगरेज़ी भाषायें