पृष्ठ:साहित्यालाप.djvu/२२३

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१४- कवि सम्मेलन।

कवित्व शक्ति की प्राप्ति, प्रकृति या परमेश्वर की कृपा ही से होती है । उसे उसका अलौकिक दान कहना चाहिए । आचार्यों ने कवि को द्वितीय ब्रह्मदेव माना है। ब्रह्मा के सदृश ही कवि भी अपनी एक जुदा ही सृष्टि की रचना कर सकता है और करता है। वह चाहे तो क्षुद्र जनों के स्वल्प यशःसौरभ‌ को भी सर्वत्र फैला दे और प्रतापियों की प्रताप-राशि पर भी कलङ्क की कालिमा लगा दे। वह अपनी कवित्व-शक्ति के बल पर राज राजेश्वरों को भी कुछ नहीं समझता। राजे-और चक्रवर्ती राजे-कुछ सृष्टि-रचना तो कर सकते नहीं। कुछही समय तक वे अपने बल और वैभव, यश और प्रताप की कला का चमत्कार दिखाकर इस लोक से तिरोहित हो जाते हैं। और कवि? कवि की कीर्ति तो अनन्त काल तक बनी रहती है। नद, नदी, देश, महादेश और गगनचुम्बी पर्वत नष्ट होजाते हैं; परन्तु वह नष्ट नहीं होती। हां, वह अनुकूलता की प्राप्ति की मुखापेक्षिणी ज़रूर होती है।

कवि को शक्ति और प्रभुता की इयत्ता नहीं । प्रकृत कवि क्या नहीं कर सकता ? वह रोते हुओं को हँसा सकता है और हँसते हुओं को रुला सकता है। कायरों की रगों में वह वीरता का सञ्चार कर सकता है, सोते हुओं को जगा सकता है, देश-