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साहित्यालाप

श्रुतेन यत्न न च वागुपासिता

ध्रु वं करोत्येव कमप्यनुग्रहा

परन्तु एक बात है। वह यह कि ये बने हुए कवि प्रकृत कवि की समकक्षता नहीं कर सकते। प्रकृत कवि थोड़े ही परिश्रम और परिशीलन से अपनी कवित्व-शक्ति को विकसित कर सकता है; बना हुआ कबि बहुन परिश्रम और परिशीलन से भी थोड़ी ही कवित्व-शक्ति प्राप्त कर सकता है। पर श्रम, शिक्षा और अध्ययन की आवश्यकता दोनों ही के लिए होती है । बिना इन बातों के प्रकृत कवि के हृदय का बीज अच्छी तरह अङ्कुरित नहीं होता और अप्रकृत कवि को साधारण कविता करने की भी स्फूर्ति नहीं प्राप्त होती।

कुछ उदाहरण लीजिए । लखनऊ के हरिविलास रस्तोगी,फर्रुख़ाबाद के गणेशप्रसाद हलवाई और बनारसी नामक लावनी-बाज़ की रचनाओं को देखिए। वे सरस और कवित्वपूर्ण हैं । परन्तु यथेष्ट शिक्षा और परिशीलन के अभाव में इन प्रकृत कवियों की कवित्व-शक्ति यों ही कुछ थोड़ी सी उन्मिषित हो कर रह गई । वह अच्छी तरह बढ़ न सकी। इसके विपरीत अप्रकृत, पर शिक्षित और अभ्यासशील, कवियों के नाम देने की ज़रूरत नहीं, क्योंकि उससे विवाद बढ़ने का डर है। जिन लोगों की रचनायें आजकल समाचार-पत्रों और मासिक पुस्तकों में प्राय: निकलती हैं उनमें से कई ऐसे निकलेंगे जिनकी उक्तियां, एक निर्दिष्ट सीमा तक सरस और कवित्व-व्यज्जक ज़रूर हैं। पर उनमें वह भावप्रवणता और कल्पनाओं