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साहित्यालाप


सूचक ही समझा । तथापि मन मेरा फिर भी नहीं मानता। अतएव मैं आपकी मानसिक अर्चना करता हूं; आप भी कृपा कर के उसे उसी भाव से ग्रहण कीजिए। आसन अपना तो आपके लिए मैंने पहलेही छोड़ दिया है । स्वागत भी मैं आपका कर चुका । आनन्दवाष्पों से मैं अब आपके पैर धोता हूं। मेरी इन उक्लियों में प्रयुक्त वर्णों में यदि कुछ भी माधुर्य हो तो मैं उसी को मधुपर्क मान कर आपको अर्पण करता हूं । विनीत वचनों ही को फूल समझ कर आप पर चढ़ाता हूं, और नम्रशिरस्क होकर प्रार्थना करता हूं-

वन्दे भवन्तं भगवन प्रसीद

आपके आतिथ्य और आप के स्वागत के लिए जो प्रबन्ध किया गया है वह, मैं जानता हूं, अनेक अंशों में त्रुटिपूर्ण है। उसमें बहुत तरह की न्यूनतायें हैं । पर उन त्रुटियों और न्यूनताओं का कारण कर्त्तव्य की अवहेलना नहीं। उनका कारण कुछ तो असामर्थ्य, कुछ अवान्तर बातें और कुछ अनुभव की कमी है। परन्तु त्रुटियों और न्यूनताओं के होने पर भी, मैं आप को विश्वास दिलाता हूं कि आपके विषय में कानपुर-नगर के निवासियों के हृदयों में हार्दिक भक्तिभाव और प्रेम की कमी नहीं, श्रद्धा और समादर की कमी नहीं, सेवा और शुश्रूषैषणा की कमी नहीं । आशा है, आप हमारे आन्तरिक भावों से अनुप्राणित होकर हमारी त्रुटियों पर ध्यान न देंगे, क्योंकि-

भक्त यैव दुष्यन्ति महानुभावाः

आपके आतिथ्य के लिए किया गया प्रबन्ध यदि आप