वर्ण अलग अलग दिये हुए हैं और जो वर्ण देवनागरी के जिस वर्ण की जगह पर है वह भी दे दिया गया है। साथ ही वैदिक संस्कृत का कुछ अंश भी, उदाहरण के तौर पर, इस सुधरी हुई रोमन-लिपि में लिख कर बताया गया है ।
नोल्स साहब को राय है कि कुछ विद्वानों की एक कमिटी बना दी जाय । उलमें भारतवाली विद्वान भी शामिल किये जाँय । वे लोग इस विषय पर विचार कर के अपनी रिपोर्ट दें। फिर गवर्नमेंट इस सुधरो हुई रोमन-वर्णमाला को स्कूलों और कचहरियों में जारी कर दे। परन्तु इस विषय को वह ऐच्छिक रखे। अर्थात् जिसका जी चाहे इन अक्षरों में लिखे पढ़े, जिस का जी न चाहे वह अन्य प्रचलित अक्षरों से काम ले । ऐसा करने से, पादरी साहब की राय है, कि कुछ ही कालोपरान्त भारत में सर्वत्र साक्षरता का साम्राज्य हो जायगा । एक भी कुटुम्ब-नहीं, कुटम्ब का एक भी मनुष्य-निरक्षर न रहेगा।
अच्छा, अब पादरी साहब की दलील को तर्क की कसौटी पर कसिए। इसमें सन्देह नहीं कि अच्छी लिपि या वर्णमाला न होने से शिक्षा-प्रचार में रुकावट होती है, परन्तु यह रुकावट क्या रोमन अक्षरों के प्रचार ही से दूर हो सकती है ? और किसी तरह नहीं हो सकती ?
इंगलैंड में रोमन अक्षरों ही का प्रचार है और हज़ारोंवर्ष से है। क्या पादरी साहब वहां की मनुष्य-गणना की रिपोर्ट या किसी और सरकारी किताब से इस बात का प्रमाण