पृष्ठ:साहित्यालाप.djvu/२६०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२५५
वक्तव्य


अब भी यदि इसकी आवश्यकता होगी तो इस अधिवेशन के अधिष्ठाता महाशय इस विषय में आपको अपना महत्वपूर्ण वक्तव्य सुनावेंहींगे और यह भी बतावेंगे कि राष्ट्र से राष्ट्र-भाषा का क्या सम्बन्ध है।

मैं तो केवल इतना ही कहना चाहता हूं कि मनुष्य की मातृभाषा उतनी ही महत्ता रखती है जितनी कि उसकी माता और मातृभूमि रखती है। एक माता जन्म देती है; दूसरी खेलने-कूदने, विचरण करने और सांसारिक जावननिर्वाह के लिए स्थान देती है, और तीसरी मनोविचारों और मनोगत भावों को दूसरों पर प्रकट करने की शक्ति देकर मनुष्य-जीवन को सुखमय बनाती है । क्या ऐसी मातृभाषा का हम पर कुछ भी ऋण नहीं ? क्या ऐसी मातृभाषा की विपन्नावस्था देखकर जानकार जनों की आंखों से आंसू नहीं टपकते ? क्या ऐसी मातृभाषा से अधिकांश लोगों को पराङ्मुख होते और उसका परित्याग करते देख मातृभाषाभिमानियों का हृदय विदीर्ण नहीं होता ? जो अपनी भाषा का आदर नहीं करता, जो अपनी भाषा से प्रेम नहीं करता, जो अपनी भाषा के साहित्य की पुष्टि नहीं करता, वह अपनी मातृभूमि की कदापि उन्नति नहीं कर सकता। उसके स्वराज्य का स्वप्न, उसके देशोद्धार का संकल्प, उसकी देश-भक्ति की दुहाई बहुत कुछ निःसार है। उसकी प्रतिज्ञायें और उसके प्रचारण और आस्फालन बहुत ही थोड़ा अर्थ रखते हैं । मातृभाषा की उन्नति करके एकता,जातीयता और राष्ट्रीयता के भावों को जब तक आप झोपड़ियों