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वक्तव्य


के महत्व को समझते हैं, जो एकता के जादू को जानते हैं वे प्राण रहते कभी अपनी भाषा का त्याग नहीं करते; कभी उसके पोषण और परिवर्तन के काम से पीछे नहीं हटते; कभी दूसरों की भाषा को अपनी भाषा नहीं बनाते । जिन्दा देशों में यही होता है । मुर्दा और पराधीन देशों की बात मैं नहीं कहता; उन अभागे देशों में तो ठीक इसका विपरीत ही दृश्य देखा जाता है।

४-मातृभाषा के स्वराज्य की आवश्यकता।

इस समय इस देश में स्वराज्यप्राप्ति के लिए सर्वत्र चेष्टा हो रही है। जिधर देखिए उधर ही स्वराज्य, स्वराज्य का घण्टा-नाद सुनाई दे रहा है। भारत के वर्तमान प्रभुओं ने भी थोड़ा थोड़ा करके स्वराज्य दे डालने की प्रतिज्ञा न सही, घोषणा तो ज़रूर ही कर डाली है। अब कल्पना कीजिए कि यदि इसा साल भारत के शासनकर्ता यहां से चल दें और कह दें कि लो अपना स्वराज्य, हम जाते हैं; तो ऐसा अवसर उपस्थित होने पर, बताइए, नवीन शासन में कितनी कठिनाइयां उपस्थित हो जायंगी। क्योंकि, भाषा के स्वराज्य की प्राप्ति का कुछ भी उपाय अब तक नहीं किया गया। और बिना इस स्वराज्य के शासन-व्यवस्था का विधान कभी सुचारु रूप से नहीं चल सकता। बिना भाषा के स्वराज्य के क्या पद पद पर विश्टङ्खलता न उपस्थित होगी? क्या उस समय भी अँगरेज़ी ही भाषा की तूती बोलेगी ? कितने परिताप की बात है कि इस इतनी महत्वपूर्ण बात की और आज तक बहुत ही कम लोगों का ध्यान गया है । क्या इस धरातल पर कोई भी देश
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