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साहित्यालाप


ऐसा है जहां शासन-सम्बन्धी स्वराज्य तो है, पर भाषा- सम्बन्धी स्वराज्य नहीं? स्वराज्य पाकर भी क्या कोई देश विदेश की भाषा के द्वारा शासनकार्य का सम्पादन कर सकता है ? भाइयो, स्वराज्यप्राप्ति की चेष्टा के साथ ही साथ, हमें मातृभाषा के स्वराज्य की प्राप्ति के लिए भी सचेत होना चाहिये । स्वराज्य पाने के लिए तो हमें किसी हद तक परमुखापेक्षण और परावलम्बन की भी आवश्यकता है, पर भाषा के स्वराज्य के लिए नहीं । उसकी स्थापना तो सर्वथा हमारे ही हाथ में है । मानसिक स्वराज्य मातृभाषा ही के आधार पर प्राप्त हो सकता है और बिना इस आधार के शासनविषयक स्वराज्य मिल जाने पर भी, वह सफलतापूर्वक नहीं सञ्चालित हो सकता। जातीय जीवन को एक सूत्र में बाँधने के लिए भी सबसे श्रेष्ठ उपाय मातृभाषा का स्वराज्य ही है । उससे स्वधर्म की भी रक्षा हो सकती है, ऐक्य की भी वृद्धि हो सकती है और परम्परागत ज्ञान की उपलब्धि भी, थोड़े ही श्रम से, हो सकती है। यदि हमें अपने धर्म-कर्म, सदाचार, इतिहास, वेद, शास्त्र, पुराण, विज्ञान,समाजनीति,राजनीति आदि सभी विषयों का ज्ञान अपनी ही भाषा के द्वारा होने लगे, अन्य भाषाओं का मुंह न ताकना पड़े, तो समझना चाहिए कि हमें स्वभाषा का स्वराज्य प्राप्त हो गया। भगवान् करे, आप इस अधिवेशन में ऐसा शङ्ख फूंके जिसकी तुमुल ध्वनि सुन कर आलस्यग्रस्त जन जाग पड़े और स्वभाषा के स्वराज्य की प्राप्ति के साधन प्रस्तुत करने में तन, मन से लग जायं !