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वक्तव्य

५-एक व्यापक भाषा की आवश्यकता ।

जिस तरह अपनी भाषा के स्वराज्य की आवश्यकता है उसी तरह अपने देश में एक प्रधान भाषा के सार्वत्रिक प्रचार की भी आवश्यकता है। भारत देश नहीं, महादेश है । उसके भिन्न भिन्न प्रान्तों की भाषायें भी भिन्न भिन्न हैं। उसके प्रान्त, प्रान्त नहीं। उनमें से कितने ही योरोप के छोटे छोटे देशों से भी बहुत बड़े हैं । भारत की कुछ प्रान्तीय भाषाओं में थोड़ा बहुत पारस्परिक मेल अवश्य है, पर कुछ में बिलकुल नहीं। ये भाषायें चिरकाल से अपनी अपनी भिन्नता स्थापित किये हुए ही चली आ रही हैं । इन सभी ने अपने अपने साहित्य को जुदा जुदा सृष्टि की है । इन भाषाओं के अन्तस्तल तक में इनके प्रान्तवासियों की जातीयता प्रविष्ट हो गई है । अतएव इनका परित्याग न तो सम्भव है और न श्रेयस्करही है । ये सब बनी रहे। इनकी समुन्नति होती जाय; इनके साहित्य की श्री सम्पन्नता बढ़ती जाय-देश का कल्याण इसी में है। परन्तु साथ ही एक ऐसी भी भाषा को आवश्यकता है,और बहुत बड़ी आवश्यकता है, जिसकी सहायता से सभी प्रान्तों के वाली अपने विचार अन्य प्रान्तवासियों पर प्रकट कर सकें। सारे देश की विचार-परम्परा को एकही धारा में बहाने-परस्पर एक दूसरे के सुख-दुःखों और इच्छा-आकांक्षाओं को व्यक्त करने-के लिए इसके सिवा और कोई साधन ही नहीं । सारे देश को एक सूत्र में बांधने, ऐक्य की स्थापना करने और जातीयता का भाव जागृत रखने की सबसे बढ़ कर शक्ति भाषा ही की