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साहित्यालाप


क ता में है। इसी से दूरदर्शी और महामान्य महात्मा गांधी हिन्दी को व्यापक भाषा बनाने पर इतना ज़ोर देते हैं। क्योंकि इस देश में यदि कोई भाषा सार्वदेशिक हो सकती है तो वह हिन्दी ही है । इस बात को अब प्राय: सभी विज्ञ जनों ने मान लिया है। अतएव इस विषय में वाद-विवाद या बहस के लिए अब जगह नहीं । इसने तो अब गृहीत सिद्धान्त का स्वरूप धारण कर लिया है। जिन प्रान्तों की मातृ-भाषा हिन्दी नहीं उनमें भी अब हिन्दी के स्कूल और क्लासें खुल रही हैं; सैकड़ों हज़ारों शिक्षित पुरुष और कहीं कहीं स्त्रियां भी हिन्दी सीख रही हैं । इसका बहुत कुछ श्रेय हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन को भी है।

एक और दृष्टि से भी भारत में एक व्यापक भाषा की आवश्यकता है और उस दृष्टि से, यिना एक ऐसी भाषा के, देश का काम ही किसी तरह नहीं चल सकता । वह दृष्टि राजनैतिक-अथवा हिन्दी के किसी किसी वैयाकरण की सम्मति में राजनीतिक है । स्वराज्य-प्राप्ति के विषय में, ऊपर एक जगह, एक कल्पना की जा चुकी है । अब, आप एक क्षण के लिए, एक और भी वैसी ही कल्पना कर लीजिए । मान लीजिए कि आपको स्वराज्य मिल गया या दे दिया गया, या आप ही ने ले लिया; और इस देश में प्रजासत्तात्मक या प्रतिनिधिसत्तात्मक राज्य की व्यवस्था हो गई। ऐसा होने पर-भारतीय संयुक्तराज्यों की स्थापना हो चुकने पर आपने प्रान्त प्रान्त में प्रतिनिधि-सत्तात्मक कौंसिलों की योजना कर