स्वयं ही इस विषय का अध्ययन करके अपने इतिहास का
आपही निर्माण करें और जहां तक हो सके उसे अपनी ही
भाषा के साँचे में ढालें । बिना ऐसा किये न तो अपने साहित्य
की अभिवृद्धि ही होगी और न अपना सच्चा इतिहास ही अस्तित्व में आवेगा।
९--साहित्य की समृद्धि के उपाय ।
देवनागरी लिपि और हिन्दी भाषा का प्रचार बढ़ रहा है ! उनके गौरव का ज्ञान लोगों को धीरे धीरे होता जा रहा है। कांग्रेस आदि बड़ी बड़ी राजनैतिक संस्थाओं में भी अब हिन्दी का प्रवेश हो गया है। विख्यात वक्ताओं तक को अब कभी कभी इच्छापूर्वक, कभी कभी निरुपाय होकर, कभी कभी हवा का रुख बदला हुआ देख कर अनिच्छा से भी उसका आश्रय लेना पड़ता है। नये नये लेखकों और प्रकाशकों की कृपा से उस के साहित्य की भी वृद्धि हो रही है। यह सब होने पर भी, और और भाषाओं के साहित्य के साथ अपने साहित्य की तुलना करने पर, यह समस्त आयोजन वारिधि की पूर्ति के लिए एक वारि-बिन्दु ही के बराबर है । तथापि यह इतनी भी वृद्धि कुछ तो सन्तोषजनक अवश्य ही है-
श्लाघ्य मितापमपि किन्न मरौ सरश्चेत् ?
क्योंकि राजपूताने के उत्तम वालुकामय मरुस्थल में एक अत्यल्प भी जलाशय शुष्क कण्ठ सींचने का काम कुछ तो देता ही है।
परन्तु यदि हमें और भाषाओं की समकक्षता करजा है-