पृष्ठ:साहित्यालाप.djvu/२७९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२७४
साहित्यालाप


यदि हमें और देशों के न सही, अपने ही देश के अन्य प्रान्तों के सामने अपने मस्तक को ऊंचा उठाना है-तो हमें अपनी भाषा के साहित्य की वृद्धि झपाटे से करना चाहिए। क्योंकि अभी वह अत्यन्त ही अनुन्नत दशा में है। अतएव जब तक अनेक मातृभाषा-प्रेमी समर्थ जन इस ओर न झुकेंगे तब तक हिन्दी-साहित्य की उन्नति नाम लेने योग्य कदापि न होगी। क्योंकि जब से जन-समुदाय में शानाङ्कर का उदय हुआ तब से आज तक नाना भाषाओं के साहित्य में अनन्त ज्ञानराशि सञ्चित हो चुकी है। इस दशा में उसी भाषा का साहित्य समृद्ध कहा जा सकता है जिसमें इस ज्ञान-राशि का सबसे अधिक सञ्चय हो। यह बात दस, बीस, पचास वर्षों में भी नहीं हो सकती। अतएव जब तक अनेकानेक लेखक चिरकाल तक इस काम में न लगे रहेंगे तब तक अपनी भाषा का साहित्य समृद्ध न होगा। यों तो समृद्धि का यह काम सीमारहित है, वह कभी बन्द ही नहीं हो सकता। क्योंकि ज्ञान की उन्नति दिन पर दिन होती ही जाती है;नई नई बातें ज्ञात होती ही जाती हैं। नये नये शास्त्रों, विज्ञानों, कलाओं और आविष्कारों का उद्भव होता ही जाता है। अतएव उन सबको अपनी भाषा के साहित्य-कोष में सञ्चित कर देने की आवश्यकता सदा ही बनी रहेगी। जब तक हिन्दी-भाषा का अस्तित्व रहेगा तब तक इस ज्ञान-सञ्चय के कार्य को जारी रखने की आवश्यकता भी रहेगी। ऐसा समय कभी आने ही का नहीं जब कोई यह कहने का साहस कर सके कि बस, अब समस्त ज्ञान-कोष