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वक्तव्त


के पारगामी पण्डित बने, और जिसकी बदौलत ही अब भी उनके गार्हस्थ्य जीवन सम्बन्धी सारे काम चलते हैं उसीके साथ उनके इस सलूक का दृश्य मनस्वी मनुष्यों ही के नहीं, देवताओं के भी देखने योग्य है ! भगवान्, आप तो करुणासागर कहाते हैं। इन प्रान्तो ने ऐसा कौन सा घोर पाप किया है जो आप इन मातृभाषाझक्लों के हृदयों में आत्मगौरव और आत्माभिमान का न सही, करुणा तक का उद्रेक नहीं करते ? स्वराज्य का भाव जब आपने इनके हृदयों में जागृत कर दिया तब स्वभाषा के साहित्य की महत्ता का भाव क्यों न जागृत किया ? क्या इन दोनों में अन्योन्या-अयभाव नहीं ? क्या ये एक दूसरे के आश्रय बिना बहुत समय तक टिक सकते हैं ? देवताओ, तुम्हारा कारुण्य पारावार क्या बिलकुल ही सूख गया ? क्या किसी कुम्भजन्मा ने उसे समग्र ही पी लिया ? क्या उसके एक ही छींटे से हिन्दी-साहित्य का सन्ताप नहीं दूर हो सकता ?

तदुग्रतापव्ययसक्काशीकरः सुराः स व: केन पपे कृपार्णवः ?

उदेति बुद्धिहदि नाऽशुभेतरा किमाशु संकल्पकरणश्रमेण वः ?

भाइयो, यदि और कहीं से कुछ भी सहायता न मिले तो आप ही इलाहाबाद-विश्वविद्यालय के कर्णधारों की मोहनिद्रा भङ्ग करने की चेष्टा कीजिए । देखिए, उनके कर्तव्य पराङ्ग-मुख होने से अपनी कितनी हानि हो रही है। शेक्सपियर,शैली और बाइरन ही को नहीं, चासर तक को याद करते करते हम अपने सूर, तुलसी, बिहारी और केशव को भी