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साहित्यालाप


भूनते जा रहे हैं ! नार्मन और सैक्सन लोगों नक की भी पुरानी कथायें कहते कहते हम अपने यादवों, मो? और करावों का नाम तक विस्तृत करते जा रहे हैं। टेम्स और मिसीसिपी, डॉन और डेन्यूब को लम्बाई, चौड़ाई और गहराई नापते नापते हम यह भो जानने को ज़रूरत नहीं समझने लगे कि अपने ही प्रान्त अथवा अपने ही ज़िले की गोमती और घाघरा‌ बेतवा और सई, लोनी और रामगङ्गा कहां से निकलीं और कहां गिरो हैं तथा उनके तट पर कौन कौन प्रसिद्ध नगर और क़सबे हैं ! यदि छोटे दरजों में पढ़ाई जानेवाली किताबों में इन नदियों आदि का उल्लेख भो कहीं मिलता है तो यों ही उड़ते हुए दो चार शब्दों में ! हम को धिक् ! यदि अपनी भाषा और उस के साहित्य की पढ़ाई का पूरा प्रवन्ध होता तो क्या आज ऐसी दुर्व्यवस्था देखने का दिन आता ? क्या इस दशा में भी जातीयता के भावों की रक्षा हो सकती है?

मैं यह नहीं कहता कि अंगरेज़ी भाषा और उस के साहित्य की उच्च शिक्षा न दी जाय। नहीं, ज़रूर दी जाय । देश की वर्तमान स्थिति में बिना उ लकी शिक्षा के तो हमारा निस्तार ही नहीं। मैं तो यहां तक समझता हूँ कि स्थिति बदलने पर भी राजनैतिक कारणों का दबाव दूर होने पर भो -अँगरेजी भाषा और उसके साहित्य की शिक्षा की शायद फिर भी आवश्यकता बनी रहे। क्योंकि अन्य भाषायें-चाहे वे स्वदेशी हो चाहे विदेशी--हमें सभी की सहायता से अपनी ज्ञानवृद्धि करनी है। प्रान कहीं भी क्यों न हो, उसे ग्रहण