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वक्तव्य

जो चर्चा की जाय उसमें अस्त्यता की तो बात ही नहीं, अतिरञ्जना भी न होनी चाहिए। समाचारपत्रों को अन्याय और अनुचित आलोचना को पाप समझना चाहिए। जो पत्र व्यक्तिगत आक्षेपों और कुत्सापूर्ण लेखों से अपने कलेवर को काला करते हैं वे अपने पवित्र व्यवसाय का दुरुपयोग करते हैं, और जनता की दृष्टि में अपनेको निन्द्य और उपहासास्पद बनाते हैं। उनके व्यर्थ के पारस्परिक विवादों में न पड़ना चाहिए। व्यापार-व्यवसाय से सम्बन्ध रखनेवाले और दूकानदारी के दाव-पेचों से पूर्ण विज्ञापनों को समाचारों और सम्पादकीय लेखों के आच्छादन में छिपा कर कभी प्रकाशित न करना चाहिए। विज्ञापन देनेवालों को अपने पत्र की प्रकाशित या वितरित कापियों की संख्या बढ़ा कर न बतानी चाहिए। आक्षेपयोग्य, अश्लील, धोखेबाज़ी से भरे हुए विज्ञापन कभी न छापना चाहिए। अनौचित्य का सन्देह होने पर, जांच करने के अनन्तर, इस बात का निश्चय कर लेना चाहिए कि विज्ञापन प्रकाशनीय है या नहीं। अपने हानि-लाभ को न देख कर, जहां तक बुद्धि और विवेक काम दे, सच्चे ही विज्ञापन लेने चाहिए। सौ बात की बात यह, कि कभी, किसी भी दशा में जान बूझ कर सत्य का अपलाप न करना चाहिए।

अतएव प्रार्थना है कि समाचारपत्रों के नियमन के लिए आप कोई ऐसी नीति या नियमावली निश्चित कर दीजिए जो उनका मार्गदर्शक हो। आप यदि कुछ नियामक नियम बना