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साहित्यालाप


मर गई ! तो यही समझना होगा कि वाग्धारा का प्रवाह सेवक है और व्याकरण उसका स्वामी । परन्तु यह बात नितान्त अस्वाभाविक और बेजड़ है। व्याकरण तो बाग्धारा का दास है। स्वामित्व उसके भाग्य में कहां ?

व्याकरण का काम सिर्फ इतना ही है कि लोग जैसी भाषा बोलें या लिखें उसका वह सङ्गति-मात्र लगादेः उसके नियम-मात्र वह बता दे। उसे यह कहने का कोई अधिकार नहीं कि तुम इसी तरह बोलो, या इसी तरह लिखो, या इस शब्द का प्रयोग इसी लिङ्ग में करो। इस तरह का विधान करनेवाला व्याकरण कौन है ? उसे तो शिष्ट लेखकों और वक्ताओं को आशा के पालन-मात्र का काम सौंपा गया है। उसे वह करे। यदि वह उसके आगे जायगा तो आज्ञोलड़्घन का अपराधी होगा। दो आशाओं के पेंच में पड़ने पर उसका कर्तव्य केवल इतना ही है कि दोनों प्रकार के प्रयोगों को वह साधु प्रयोग माने - वह कहे कि श्याम भी ठीक है और स्याम भी। अपप्रयोग तभी तक माना जा सकता है जब तक भ्रम या अज्ञान के वशवर्ती होकर, कुछ ही जन किमी शब्द, वाक्य, मुहावरे आदि को, प्रचलित रीति के प्रतिकूल, बोलते या लिखते हैं। परन्तु यदि धीरे धीरे सैकड़ों मनुष्य उसे उसी तरह लिखने लगते हैं तब वह अपप्रयोग नहीं रह जाता; तब तो वह भी साधु प्रयोग हो जाता है।

हिन्दी में दही-शब्द पुल्लिङ्ग (संस्कृत, पुल्लिंग) माना जाता है। क्योंकि अधिकतर बोलने और लिखनेवाल उसे उसा