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साहित्यालाप

(२) दिव्य-शब्द विशेषण भी है, पुल्लिङ्ग भी है और क्लीव लिङ्ग भी।

(३) साधु-शब्द विशेषण भी है, अव्यय भी है, पुल्लिङ्ग भी है और स्त्री-लिङ्ग भी।

संस्कृत-भाषा के कुछ शब्द तो वाग्धारा के और भी अधिक विभागों में घुस गये हैं। कुछ शब्द तो ऐसे हैं जिनकी विलक्षणता का ठिकाना ही नहीं।

संस्कृत में एक शब्द है दार। वह जब दर्ज या छेद के अर्थ में आता है तब तो पुलिङ्ग होता ही है; पर जब स्त्री या पत्नी के अर्थ में आता है तब भी पुल्लिङ्ग ही बना रहता है और इतनी विशेषता या विलक्षणता और भी धारण कर लेता है कि बहुवचन बनकर वह दाराः हो जाता है। इस दशा में चाहे वह एक ही पत्नी का बोधक क्यों न हो, अपना बहुत्व वह नहीं छोड़ता। अब, कहिए, वैयाकरण बेचारे किस किस शब्द के लिङ्ग-निर्देश की भूलें बतावेंगे। सच तो यह है कि ये भूले नहीं। बोलने और लिखनेवालों ने जिस शब्द का प्रयोग जिस लिङ्ग में जिस तरह किया है वैयाकरणों ने केवल उसका उल्लेख कर दिया है-केवल उन प्रयोगों को सङ्गति लगा कर उन्हें नियमबद्ध कर दिया है।

हिन्दी के कुछ हितैषी चाहते हैं कि क्रियाओं के रूपों में सादृश्य रहे। वे किसी न किसी नियम के अधीन जरूर रहें। एक उदाहरण लीजिए। वे कहते हैं कि जाना-धातु का, भूत-काल में, पुल्लिङ्ग-रूप होता है "गया"। अतएव स्त्रीलिङ्ग में