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वक्तव्य


वह होना चाहिए "गयी" अर्थात् उस गई में अकेली ई-कारही न रहे, य् अर्थात् य-कार को भी वह अपने साथ रक्खे। "गया" का उद्भव हुआ है "जाना" धातु से। उस "जाना" में न ग-कारही है और न य-कार ही। सो "गया" में "जाना" धातु के दोनों वर्ण का सर्वथा लोप हो जाना तो उन्हें सह्य है; पर "गया" के स्त्री-लिङ्ग में यदि य-कार का लोप कर दिया जाय तो वह उन्हें सह्य नहीं! कुछ लोग तो इसके भी आगे जाते हैं। वे "लिया" और "दिया" के रूप, स्त्री-लिङ्ग में, "ली" और "दी" न लिख कर "लिई" और "दिई" लिखने की सलाह देते हैं। और एक सज्जन ने तो, कुछ समय तक, इस सलाह को कार्य में परिणत भी कर दिखाया है। यह बात इतनी ही नहीं; इसके भी बहुत आगे बढ़ गई है। सरलता के कुछ पक्षपातियों को राय तो यह है कि क्रियाओं को लिङ्ग-भेद के झमेले से एकदम ही मुक्त कर देना चाहिए, जिससे बङ्गालियों, मदरासियों और महाराष्ट्र-देश के वासियों को हिन्दी सीखने में सुभीता हो और महीने ही दो महीने में वे हमारी भाषा के सुपण्डित हो जायं।

इन महाशयों के बाद, विवाद, शास्त्रार्थ, तर्क और कभी कभी कुतर्क भी सुन कर इन्द्र, चन्द्र, शाकटायन और पाणिनि आदि की आत्मायें क्या कहती होंगी, सोतो भगवान हो जानें। हां, इतना तो वे ज़रूर ही कहती होंगी कि भला जीती-जागती भाषाओं की वाग्धारा का प्रवाह भी किसी वैयाकरण या भाषावेत्ता या लेखकोत्तंस के रोकने से रुक