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साहित्यालाप


सकता है ? सिन्धु या ब्रह्मपुत्र का प्रवाह क्या दो चार पृले तृण डाल देने से बन्द हो सकता है ? यदि ऐसा होता तो हम लोगों को जगह जगह पर विभाषा और विकल्प की दुहाई क्यों देनी पड़ती ? जगह जगह पर क्यों हमें अपने पूर्ववर्ती वैयाकरणों की शरण जा कर यह कहना पड़ता कि अतुक आचार्य इस प्रयोग या इस शब्द के इस रूप को भी शुद्ध मानता है और अमुक उस रूप को भी क्यों हमें अनेक वार इस बात का निर्देश करना पड़ता कि पूर्ववाले इस तरह बोलते या लिखते हैं और पश्चिमवाले इस तरह ? सौ बात की बात यह कि वक्ताओं का मुंह और लेखकों की लेखनी वेयाकरण नहीं बन्द कर सकते।

एक शब्द या एक पद दो तरह भी लिखा जा सकता है और यदि दोनों रूपों के आश्रयदाता शिष्ट जन हैं तो वे दोनों ही प्रवलित हो जाते हैं और दोनों ही शुद्ध माने जाते हैं। इसमें न तर्क काम देता है, न व्याकरण, न कोष । संस्कृत-शब्द कोसल दन्त्य स से भी लिखा जाता है और तालव्य श् भी। स्वयं कोष शब्द को मूर्धन्य ष् और तालव्य श् दोनों को आश्रय देना पड़ा है।

धातु-रूपों का भी यही हाल है। उनमें भी सभी कहीं नियमों का एकाधिकार नहीं। श्री और स्त्री शब्द दोनों शदृश हैं। दोनों का वजन भी एक ही सा है । पर कर्तृ-कारक, प्रथमा-विभक्ति, में स्त्री तो स्त्री ही रह जाती है, श्री के आगे विसर्ग कूद पड़ते हैं और वह श्रीः में परिवर्तित हे