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वक्तव्य


जाती है। अब उलटी विचित्रता देखिए । द्वितीया-विभक्ति के योग में श्री-शब्द का एक-वचनान्त रूप होता है श्रियम् और वहुवचनान्त श्रियः । इसी तरह स्त्री-शब्द के भी रूप होते हैं-स्त्रियम् और स्त्रियः । परन्तु जिस ज़माने में संस्कृत बोल-चाल की भाषा थी उस ज़माने में कुछ लोग वैसे ही बिगड़े-दिल थे जैसे आज कल “ गया" के स्त्रीलिङ्ग में‌ य-कार का वहिष्कार कर के केवल ई-कार का स्वीकार करने वाले हैं। वे स्त्रियम् और स्त्रियः के बदले " स्त्रीम" और “ स्त्रीः" लिखते और बोलते रहे । नतीजा यह हुआ कि वैयाकरणों को भखमार कर उनके स्वीकृत रूपों को भी शुद्ध ही मानना पड़ा।

संस्कृत-भाषा में क्रियायों के रूपों की विलक्षणताओं के उदाहरण देकर इस वक्तव्य को मैं जटिल नहीं बनाना चाहता। इससे उन्हें छोड़ता हूं।

निष्कर्ष यह कि वाग्धारा का प्रवाह रोका नहीं जा सकता। एक शब्द या एक पद दो रूपों में प्रचलित हो सकता है और प्रचलित हो जाने से वैयाकरणों को अपने व्याकरणों में दोनों ही को स्थान देना पड़ता है। कोई लेखक भ्रमवश किसी शब्द का विरूप प्रयोग करे तो वह अवश्य अशुद्ध है। पर शिष्ट लेखकों के द्वारा जान बूझ कर किये गये ऐसे प्रयोग अशुद्धि की कोटि से निकल कर शुद्धि की कोटि में चले जाते हैं । इस विभिन्नता या इस दृश्य को देख कर किसीका उपहास करना स्वयं अपने को उपहास्य बनाना है। हाथी के लिए यदि कोई यह