पृष्ठ:साहित्यालाप.djvu/३२२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३२७
विचार-विपय्यय।

(२)

धन्य रे अनुकरण ! तू बड़ा मायावी है । अपने मायाजाल में तूने बड़े-बड़ों तक को फँसा लिया है । अच्छा, बतला तो सहो-संसार कितने हैं ? मगर इस प्रश्न का उत्तर देते समय मदरसे में पढ़ाई गई नई और पुरानी दुनिया की बात भूल जाना । असल में हमारी दुनिया एक ही है; उसके एक अंश नया और दूसरे का पुराना होना उसको केवल विशेषता है। अच्छा तो ससार, जगत्, दुनिया, वर्ल्ड ( World ) एक ही है न ? इसमें तो मोन-मेष के लिए जगह नहीं ? क्या कहा ? --"नहीं" तो यह तेरी सरासर भूल है । तुझे मालूम नहीं, कुछ समय से सृष्टि की रचना का काम ब्रह्मा ने हिन्दीलेखकों के हाथों में सौंप दिया है । अतएव अपनी लेखनी के बल पर उन्होंने अनेक संसारों की सृष्टि कर डाली है-यथा हिन्दी-संसार, उर्दू संसार, बँगला-संसार, मराठी-संसार आदि इतने ही नहीं, उन्होंने और भी कितने ही संसार, बना डाले हैं-यथा साहित्य-संसार, सम्पादक-संसार पाठक-संसार आदि । संसार-सृष्टि की इस वृद्धि को अभी विराम नहीं। यह न समझना चाहिए कि यह जनन-क्रिया अब बन्द हो गई या बन्द होनेवाली है । वह बन्द न होगी; क्योंकि अभो पुस्तक-संसार, पृष्ठ-संसार, वाक्य-संसार और शब्द-संसार आदि की उत्पत्ति होना बाकी है । ये सभी संसार, और शायद कुछ और भी, अभी गर्भस्थ हैं । लेखकों की बहु-प्रसूता लेखनो देवो, क्रम क्रम से, उनको भी प्रसव किये बिना न रहेगी । बात यह है कि ये