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साहित्यालाप

लोग साहित्य प्रेमी नहीं, साहित्य-सेवी नहीं, साहित्य-शास्त्री भी नहीं । ठहरे ये साहित्यिक ! क्या कहना है ! कितनी श्रुति सुखद, कितनी सरल और कितनी मनोरम शब्द-सृष्टि है ! पर क्या परवा ? समुन्नत बँगला भाषा के लेखकों ने इसे अपना जो लिया है। फिर भला हम क्यों न उनका अनुकरण करें ? अंँगरेज़ी भाषा के "Literary World" की बदौलन जब हमने अनेक संसारों की सृजना कर डाली, भद्र बँगला की बदौलत यदि हम अपनी भाषा में, मधु और मिश्री से भी अधिक मीठे एक नये शब्द "साहित्यिक" की सृष्टि कर डाले तो हर्ज ही क्या है ?

पराया माल भला हो या बुरा: घर आ जायगा तो कभी न कभी काम ही देगा। कुछ दाम तो देने पड़ते ही नहीं, जो कबूल करते, खरींदते या चुराते वह अच्छे या बुरे की जांच करने बैठे। औरों का चाहे जो मत हो, अपने राम तो जांच-पड़ताल के मुतलक कायल नहीं । मुफ्त में मिलता हो तो औरों के कूड़े-करकट से भी हम अपना घर पाट दें।कभी हमारे नाती पोते खेती करेंगे तो वही कूड़ा-करकट खाद का काम देगा। इसीसे, भाई, हमने तो फ़ारसी भाषा के "मारे आस्तीन" को पकड़ कर अपनी कोठरी में क़ैद कर रक्खा है । अगर कोई हमसे पूछता है कि-रामजी, इसमें क्या है । तो हम कहते हैं-आस्तीन का सांप । फ़ारसी ही के क्यो, हम तो किसी भी भाषा के मुहावरे हज़म कर जाना रखा समझते हैं।