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साहित्यालाप


कभी समझ में भी नहीं आती । ये लोग बहुधा बड़ेही विलक्षण छन्दों या वृत्तों का भी प्रयोग करते हैं। कोई चोपदे लिखते हैं। कोई छःपदे, काई ग्यारहपदे ! कोई तेरहपदे ! किसीकी चार सतरें गज़ गज़ भर लम्बी तो दो सतरें दो ही दो अङ्गुल की ! फिर ये लेग बेतुकी पद्यावती भी लिखने की बहुधा कृपा करते हैं। इस दशा में इनकी रचना एक अजीब गोरखधन्धा हो जाती है । नये शास्त्र की आज्ञा के कायल, न ये पूर्ववर्ती कवियों की प्रणाली के अनुवतीं, न ये सत्समालोचकों के परामर्श की परवा करनेवाले ! इनका मूलमन्त्र है-हमचुनां दीगर नेस्न । इल हमादानी को दूर करने का क्या इलाज हो सकता है, कुछ समझ में नहीं आता।

कविता-नामधारिणी गुहार्थबोधक रचना करके ख्याति के अभिलाषी लेखकों को सचेत करने के लिए श्रीयुन भ्याल शिवन्न शास्त्री नाम के एक आंध्रदेशीय सज्जन ने, गत फ़रवरी की सरस्वती में, अपने विचार इस प्रकार प्रकट किये हैं।

"आज-कल की कविता का तो कोई निश्चित रूप (ही) नहीं। x x x x विशेष कर के आज-कल युवक कवि मिस्टिक पोयट्रो' (रहस्यमय कविता) लिखते हैं। ये लोग अपने अनुभव के किसी पहलू को लेकर इतनी अस्पष्ट कविता लिखते हैं कि स्वयं लेखक के सिवा दूसरेकी समझ में वह नहीं आती । इनमें कई तो ऐसे भी लेखक हैं जो दुसरोंको अपनी कविता का भाव