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साहित्यालाप



ओर मनुष्यों की अधिक प्रवृत्ति हो जाय और हिन्दी के प्रचार में बड़ी सुविधा हो। वङ्गदेश के निवासियों को हिन्दी समझने में कोई कठिनता नहीं पड़ती और न गुजरातियों ही को पड़े। और, यदि गुजरातियों को कुछ कठिनता पड़े भी तो महीने पन्द्रह दिन हिन्दी के पत्र और पुस्तकें पढ़ने ही से वह कठिनता दूर हो सकती है। अतएव यदि महाराष्ट्र, गुजराती और बँगाली अपने अपने प्रान्त में हिन्दी का प्रचार कर दें तो इस विस्तीर्ण देशके १ भाग में हिन्दी प्रचलित हो जाय। इससे देश का परम कल्याण हो ; शीघ्र ही देश में सचेतनता आ जाय ; ऐक्य को वृद्धि हो ; और परस्पर सहानुभूति जागृत हो उठे ।‌ वंगवासियों में विद्या का अधिक प्रचार है। उनमें बड़े बड़े विद्वान्, बड़े बड़े देश-हितैषी और बड़े बड़े महानुभाव विद्यमान हैं। क्या वे इस बात का विचार न करेंगे? करना तो चाहिए। उन्हींको, इस विषय में, अग्रणी होना चाहिए। यदि वे सचमुच महानुभाव हैं ; यदि सचमुच ही विद्या से उनके अन्तःकरण परिमार्जित हो गये हैं ; यदि देशहितचिन्तन की एक भी कणा सचमुच ही उनके हृदय में प्रज्वलित है ; तो अवश्यमेव उनको इस कल्याणकारी कार्य में शीघ्र अग्रगामी होना चाहिए।

ऊपर हमने लिखा है, कि इस देश की भाषायें दो स्थूल विभागों में विभक्त हैं, एक आय , दूसरी द्राविड़ । आर्य भाषाओं का विचार हो चुका, अब द्राविड़ अर्थात् अनार्य भाषाओं के सम्बन्ध में हमें कुछ कहना है।