पृष्ठ:साहित्यालाप.djvu/५७

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साहित्यालाप


उसके प्रचार के लिए कोई बात उठा न रखनी चाहिए। यह लिपि कोहेनूर हीरा है ; अनमोल रत्न है। इसे छोड़ कर हमको काँच से क्यों तृप्त होना चाहिए। देवनागरी लिपि को छोड़ कर किसी दूसरी अशुद्ध, अपूर्ण, कर्कश, कर्णकटु और भ्रामक लिपि को आश्रय देना अविचार की पराकाष्ठा है। गुणवान् का योग्य आदर न करने से उसकी क्या हानि ? कुछ नहीं। हानि अनादर न करनेवालों ही की है।

अतएव बंगाली, महाराष्ट्र, गुजराती और मदरासी विद्वानों को इस सर्व-गुण-शालिनी नागरी-लिपि ही को आश्रय देना चाहिए। एक लिपि हो जाने से एक भाषा होने की कठिनता बहुत कम हो जायगी। लिपि की एकता होने से सहानुभूति बढ़ेगी ; परस्पर के विचारों का मेल मिलने लगेगा; परायापन कम हो जायगा ; और सबके हृदय में यह बात जम जायगी कि यद्यपि हम लोग भिन्न भिन्न भाषायें बोलते हैं तथापि सब एक ही देश के निवासी हैं। लिपि के एक होते ही, यदि सब के नहीं, तो शिक्षित लोगों के मन में यह बात अवश्य स्थान कर लेगी कि हम हिन्दू हैं; हमारी भाषा हिन्दी है और हमारा देश हिन्दुस्तान है। " हिन्दी और हिन्दुस्तान" ही इस देश की उन्नति का मूल मन्त्र है। शिक्षित-समाज में इस मन्त्र का अनुष्ठान प्रारम्भ होने पर सर्वसाधारण लोग भी क्रम क्रम से इसकी दीक्षा लेंगे और यथा-समय यह देश भी देशत्व का अधिकारी होगा।

इस समय हिन्दी का साहित्य अच्छी दशा में नहीं। यदि