पृष्ठ:साहित्यालोचन.pdf/२९०

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२६९ रश्य-काध्य का विवेचन और उद्देश्यों आदि के संबंध में पहले तो कुछ नातै छिपा रखते है और तय किसी उपयुक्त अवसर पर उन बातो को प्रकट करके दर्शकों को चकिन कर देते हैं। इससे यह लाभ होता है कि आदि से अन्त तक दर्शको की उत्सुकता बनी रहती है और वे बड़े ध्यान से सब बातें समझने का उद्योग करते हैं। पर नाटक में इस प्रकार काई गुप्त मेद या रहस्य छिपा रखने में इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि कहीं दर्शकों को धोना न हो जाय और ये भटककर कथावस्तु से भूर न जा परे। अब हम संक्षेप में रूपको आदि के भेद मतलाकर यह अध्याय समाप्त करते हैं। हमारे यहाँ नाश्च के दो भेद किए गए है। एक कषक और दूसरा उपरूपक । फिर रूपक के भेद रूपक के दस और उपपक के अठारह अवांतर भेद रखे गए हैं। रूपक के दस भेद और उनके संबंध को कुछ शतं इस प्रकार है- -यह रूपक के सब भेदों में से मुण्य है। आचार्यों के मन से इसमें पाँच संधियाँ, चार वृत्तियाँ, चौसठ संध्यंग, छत्तीस लक्षण और तैनीस अलंकार होने चाहिए । पाँच से दस सक अ. दोने चाहिय । इसका नायक धीरोदात्त, कुलीन, प्रतापी और दिव्य अधया अविव्य हो। शृंगार, वीर अधया करुण रस की इसमें प्रधानता हो और संधि में अनुत रस आना चाहिए । (२) प्रकरण-इसमै सब वाते प्रायः नाटक की सी ही होती है, अंतर केवल यही है कि (१) नाटक