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साहित्य का इतिहास-दर्शन 'इतिहास' तथा 'विज्ञान' स्वयं वाचक ही हैं, जिनके वाच्य अनिश्चित हैं और यह देखा गया है कि उससे पूर्व-पक्ष जो समझ रहा है, उससे भिन्न ही कुछ उत्तर-पक्ष को ग्रहण करना अभीष्ट है । 'क्या इतिहास का भी विज्ञान हो सकता है ?' इस प्रश्न का दो-दूक निषेधात्मक उत्तर दिया गया है। किंतु इसके पहले 'विज्ञान' को यों परिभाषित भी करते है-"विज्ञान ऐसे सामान्यकरण-सिद्धांत या नियम की अन्विति में समान तथ्यों के एक बृहत् समूह के संघटित होने का नाम है, जो सिद्धांत या नियमादि से निर्धारित परिस्थितियों में घटनाओं की पुनरावृत्ति के निश्चित पूर्व-कथन का आधार प्रस्तुत करते हैं।" किंतु, सत्य यह है कि विज्ञान का भले ही यह लक्ष्य हो कि तथ्यों का सामान्यकरण हो, नियम उद्भावित किये जायें और पूर्व-कथन के लिए आधार प्राप्त किये जा सकें, फिर भी यदि वह लक्ष्य की पूरी तरह प्राप्ति नहीं भी करता तो वह अपने काम या प्रकृति से वंचित नहीं होता। ऋतुकी 'को हम विज्ञान ही मानते हैं, हालांकि मौसम के संबंध में इस विज्ञान के विशेषज्ञ जो अग्र-मृचनाएं देते हैं वे, ऐसा कहा जाता है, उतनी ही संख्या में ठीक साबित होती हैं जितनी में गलत ! इसीलिए आज विज्ञान की सामान्य परिभाषाएँ इससे अधिक उसके लिए दावा करती ही नहीं कि वह "संघटित, व्यवस्थित और परिभाषित ज्ञान है।" उदाहरण के लिए, टी० एच० हक्स्ले के अनुसार, विज्ञान "वह समस्त ज्ञान है जो साक्ष्य पर अवलंबित और युक्तियुक्त होता है"; एलेक्स हिल (Alex Hill) का कथन है, “समस्त बौद्धिक ज्ञान विज्ञान ही है;" कार्ल पियर्सन का मत है, "तथ्यों का वर्गीकरण, उनका पौर्वापर्य और आपेक्षिक महत्त्व-ये ही विज्ञान के कार्य है;" और अमेरिकन बैज्ञानिक एफ० जे. टेगार्ट तो विज्ञान की यह परिभाषा मात्र देकर संतुष्ट हो जाते हैं, "बह गोचर वस्तुओं में प्रकटित प्रक्रियाओं का संघटित अनुसंधान है।" यदि एकमात्र लक्ष्य सत्यनिर्धारण है, संबद्ध समस्त तथ्यों का अवधानपूर्वक अन्वेषण होता है, पूर्वाग्रहों और पूर्व-धारणाओं से मुक्त विवेचनात्मक निर्णय पर निर्माण किया जाता है और गवेषणीय वस्तु के अनुरूप सामान्यकरण, कोटीकरण और नियमकरण होता है, तो अध्ययन के विषय को विज्ञान का गुण प्रदान करने के लिए ये पर्याप्त है । इसलिए इतिहास को ही क्यों, किसी भी विषय को, इन कसौटियों पर परखने के बाद ही, विज्ञान की सीमा के अंतर्गत या बहिर्गत मानना उचित है। विज्ञान की परिधि के बाहर वे ही विषय होंगे, जिनका वस्तु-नत्त्व, इन कसौटियों पर परसे जाने के बाद, लुप्त हो जाता है । क्या इतिहास के वस्तु-तत्त्व के माथ ऐसा होता है ? ऐसा प्रतीत तो नहीं होता । इतिहास को मनुष्य के स्थायी गुणों और उसके सफल परिवेश के नियमनों में कम-से-कम उतने ठोस आधार तो मिल ही जाते है जितने रासायनिकों के अणुकण या पदार्थशास्त्रियों के विद्युत्कण हैं । तब इतिहास का वस्तु-नत्त्व क्या है ? यहाँ 'इतिहास' शब्द के वाच्य पर विचार कर लेना समीचीन होगा। इस शब्द का अनेक परस्पर-भिन्न अर्थों में प्रयोग होता है, यह कहना अनावश्यक है । सूक्ष्म अंतरों को छोड़ भी दें, तो तीन अर्थ तो स्पष्टतः निर्धारणीय है। । प्रथम, घटनाओं के वास्तविक क्रम को घोतित करने के लिए 'इतिहाम' शब्द का प्रयोग होता है। यह सुविधाजनक होते हुए भी युक्तिसंगत नहीं है। जब हम अशोक या नेपोलियन को इतिहास का निर्माता कहते हैं तो हमारा तात्पर्य यह नहीं होता कि वे इतिहास के लेखक हैं, बल्कि यह कि उन्होंने संसार के घटना-प्रवाह को मोड़ा है। इसी प्रकार जब हम 'इतिहास के प्रभाव' की बात करते हैं तो हमारा आशय इतिहास-ग्रन्थों का प्रभाव न होकर परिस्थितियों