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पृष्ठ:साहित्य का इतिहास-दर्शन.djvu/९४

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साहित्य का इतिहास-दर्शन


'इधर जब से विश्वविद्यालयों में हिंदी की उच्च शिक्षा का विधान हुआ, तब से उसके साहित्य के विचार-शृंखलाबद्ध इतिहास की आवश्यकता का अनुभव छात्र और अध्यापक दोनों कर रहे थे। शिक्षित जनता की जिन-जिन प्रवृत्तियों के अनुसार हमारे साहित्य के स्वरूप में जो-जो परिवर्त्तन होते आये हैं, जिन-जिन प्रभावों की प्रेरणा से काव्य-धारा की भिन्न-भिन्न शाखाएँ फूटती रही हैं, उन सबके सम्यक् निरूपण तथा उनकी दृष्टि से किये हुए सुसंगत काल-विभाग के बिना साहित्य के इतिहास का सच्चा अध्ययन कठिन दिखाई पड़ता था। सात-आठ सौ वर्षों की संचित ग्रंथ-राशि सामने लगी हुई थी। पर ऐसी निर्दिष्ट सरणियों की उद्भावना नहीं हुई थी, जिनके अनुसार सुगमता से इस प्रभूत सामग्री का वर्गीकरण होता। भिन्न-भिन्न शाखाओं के हजारों कवियों की केवल काल-क्रम से गुथी उपर्युक्त वृत्त-मालाएँ (ग्रियर्सन और मिश्रबंधु की) साहित्य के इतिहास के अध्ययन में कहाँ तक सहायता पहुँचा सकती थीं; सारे रचना-काल को केवल आदि, मध्य, पूर्व, उत्तर इत्यादि खंडों में आँख मूँदकर बाँट देना—यह भी न देखना कि किस खंड के भीतर क्या आता है, क्या नहीं—किसी वृत्त-संग्रह को इतिहास नहीं बना सकता।"[] इसमें मिश्रबंधुओं पर निक्षिप्त व्यंग्य स्पष्ट ही है, और यह भी कहा जा सकता है कि ग्रियर्सन के प्रयास की जान-बूझकर उपेक्षा की गई है।

ग्रियर्सन को हिंदी के विधेयवादी साहित्येतिहास के सूत्रपात का श्रेय मिलना क्यों उचित है, यह इन उद्धरणों से स्फुट हो जायगा—

(क) "ग्रंथ अध्यायों में विभक्त है। प्रत्येक अध्याय सामान्यतया एक काल का सूचक है। भारतीय भाषा-काव्य के स्वर्ण-युग, १६वीं एवं १७वीं शती, पर मलिक मुहम्मद की प्रेम कविता से प्रारंभ करके, व्रज के कृष्ण भक्त कवियों, तुलसीदास के ग्रंथों (जिन पर अलग से एक विशेष अध्याय ही लिखा गया है) और केशवदास द्वारा स्थापित कवियों के रीति-संप्रदाय को सम्मिलित करके कुल ६ अध्याय है, जो पूर्णतया समय की दृष्टि से नहीं विभक्त हैं, बल्कि कवियों के विशेष वर्गों की दृष्टि से बँटे हैं।"[]...
(ख) "मलिक मुहम्मद के साथ हिंदुस्तान के भाषा-साहित्य का शैशव-काल समाप्त समझा जा सकता है। विशाल देव के इस बच्चे में अब स्पंदन हुआ और इसे विदित हुआ कि अब यह दृढ़ और सबल हो गया है और गृद्ध के समान अपनी उड़ान लेने के लिए उसने अपने तरुण स्फूर्त्तिमान् पंख पसार दिये। प्रारंभिक राजपूत चारणों ने संक्रमणकाल में एक ऐसी भाषा में रचना की थी, जिसको ठीक-ठीक या तो उत्तरकालीन प्राकृत अथवा राजपूताना की आधुनिक भाषा का प्राचीन रूप कहना सर्वथा कठिन है। यह शैशवावस्था थी। फिर तरुणाई आई, जब बौद्ध धर्म द्वारा गृहीत स्थान को ग्रहण करने के लिए एक जन-प्रिय धर्म का प्रादुर्भाव हो रहा था और अभिनव सिद्धांतों के प्रवर्त्तक महात्माओं को उस बोली में लिखना आवश्यक हो गया, जिसे सर्वसाधारण समझता था। मलिक मुहम्मद और दोनों वैष्णव संप्रदायों के गुरुओं को अपना पथ निर्मित करना था और वे अनिश्‍चय के साथ इस दिशा में अग्रसर हो रहे थे। जब वे लोग रचना कर रहे थे, उस समय बोली जानेवाली भाषा प्रकृत्या वही थी, जो आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में बोली जाती है, और उन्हें वही हिचक हुई होगी, जो
  1. उपरिवत्, पृ॰ २।
  2. ग्रियर्सन के इतिहास का उपर्युक्त अनुवाद, पृ॰ ४८ ।