अगर आज से पचीस तीस साल पहले की किसी पत्रिका को उठाकर आज की किसी पत्रिका से मिलाइए, तो आप को मालूम होगा कि हिन्दी गल्प-कला ने कितनी उन्नति की है। उस वक्त शायद ही कोई कहानी छपती थी, या छपती भी थी, तो किसी अन्य भाषा से अनूदित। मौलिक कहानी तो खोजने से भी न मिलती थी। अगर कभी कोई मोलिक चीज निकल जाती थी, तो हमको तुरन्त सन्देह होने लगता था, कि यह अनुवादित तो नहीं है। अनुवादित न हुई तो छाया तो अवश्य ही होगी। हमें अपनी रचना-शक्ति पर इतना अविश्वास हो गया था। मगर आज किसी पत्रिका को उठा लीजिए, उसमें अगर ज्यादा नहीं, तो एक तिहाई अंश कहानियों से अलंकृत रहता ही है। और कहानियाँ भी अनूदित नहीं, मौलिक। इस तेज चाल से दौड़ने वाले युग में किसी को किसी से बात करने की मुहलत नहीं है, मनुष्य को अपनी आत्मा की प्यास बुझाने के लिए, कहानी ही एक ऐसा साधन है, जिससे वह जरा-सी देर में-जितनी देर में वह चाय का एक प्याला पीता या फ़ोन पर किसी से बातें करता है-प्रकृति के समीप जा पहुँचता है। साहित्य उस उद्योग का नाम है, जो आदमी ने आपस के भेद मिटाने और उस मौलिक एकता को व्यक्त करने के लिए किया है, जो इस जाहिरी भेद की तह में, पृथ्वी के उदर में व्याकुल ज्वाला की भांति, छिपा हुआ है। जब हम मिथ्या विचारों और भावनाओं में पड़कर असलियत से दूर जा पड़ते हैं, तो साहित्य हमें उस सोते तक पहुँचाता है,
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